Sher shah suri history in hindi
Sher shah suri जिनका नाम फरीद खान था, एक कुशल सैन्य कमांडर और उत्तर भारत में सूरी साम्राज्य के संस्थापक थे। उन्होंने 1540 से 1545 तक शासन किया। उन्होंने मुगल सेना में काम किया था और बाबर के साथ 1528 में उनके चंदेरी के अभियान में भी गए थे।
बाबर की सेना में रहते हुए ही इन्होंने हिंदुस्तान की गाड़ी पर बैठने के ख्वाब देखने शुरू कर दिए थे बाद में Sher shah suri बिहार के एक छोटे सरगना जलाल खान के दरबार में उप नेता के तौर पर काम करने लगे थे।
बाबर की मौत के बाद उसका बेटा हुमायूं बंगाल जितना चाहता था लेकिन बीच में शेरशाह सूरी का इलाका पड़ता था हुमायूं ने उससे लड़ाई करने का मन बनाया शेरशाह की महत्वाकांक्षा इसलिए बड़ी क्योंकि बिहार और बंगाल पर उनका पूरा नियंत्रण था।
अंतत वह मुगल बादशाह हुमायूं के लिए बहुत बड़ा खतरा बन गए जहां तक युद्ध कौशल की बात है शेरशाह हुमायूं से कहीं बेहतर थे।
वर्ष 1537 में दोनों की सेना उत्तर प्रदेश के चौसा में एक दूसरे के सामने थी लेकिन लड़ाई से पहले हुमायूं ने अपना एक दूध शेरशाह के पास भेजा जब हुमायूं का दूध मोहम्मद अजीज अफगान शेरशाह सूरी के पास पहुंचा तो उसने देखा कि शेरशाह कड़ी धूप में अपने कपड़े की आस्तीन ऊंची किए हुए कुल्हाड़ी से एक पेड़ के ताने को काट रहे हैं।
Sher shah suri जमीन पर बैठकर ही उन्होंने हुमायूं का संदेश सुना आशीष ने ही दोनों के बीच समझौता करवाया इसके तहत यह तय हुआ कि मु़गलिया झंडे के तहत बंगाल और बिहार शेरशाह सूरी को दे दिए जाएंगे।
इसके कुछ समय बाद 17 मई 1540 को कन्नौज में हुमायूं और शेरशाह सूरी की सेना के बीच फिर मुकाबला हुआ हुमायूं की सेना शेरशाह की तुलना में काफी बड़ी थी। जहां शेरशाह की सेना में कुल 15000 सैनिक थे हुमायूं की सेना में 40000 से कम सैनिक नहीं थे।
लेकिन हुमायूं के सैनिकों ने लड़ाई शुरू होने से पहले ही उनके साथ छोड़ दिया और Sher shah suri बिना एक भी सैनिक गंवाई शेरशाह की जीत हो गई जब हुमायूं वहां से भागने लगा तो शेरशाह ने उसका पीछा करने के लिए अपने राजपूत सिपासालार भ्रामा द्वितीय गोर को एक बड़े दस्ते के साथ लगाया और वह अपने राजपूत सिपासालार भ्रामा द्वितीय गोर को यह निर्देश दिया कि वह हुमायूं से लड़ने के बजाय सिर्फ उसका पीछा करें।
हुमायूं अपने बच्चे कूचे हुए सैनिक के साथ किसी तरह आगरा पहुंचा आगरा पहुंचकर उसने अपनी बेगम दिलदार को लिया और अपने खजाने से कुछ खजाना लेकर मेवात के रास्ते लाहौर की तरफ रवाना हो गया।
कुछ दिनों बाद Sher shah suri भी आगरा पहुंच गए हुमायूं किसी तरह लाहौर पहुंचने में सफल रहा वहां वह करीब 3 महीने रहा क्योंकि उसके पीछे भेजे गए Sher shah suri के सैनिक बारिश के कारण आगे नहीं बढ़ा।
मुख्य तिथियाँ
- 1486, शेर शाह सूरी का जन्म
- 1522, शेर खाँ ने बहार खान के यहाँ काम करना शुरु किया।
- 1527 – 1528, शेर ख़ान ने बाबर की सेना में काम किया।
- 1539, शेर ख़ान ने हुमायूँ को चौसा में परास्त किया।
- 1540, शेर ख़ान ने हुमायूँ को कन्नौज में परास्त किया।
- मई 1545, शेर शाह सूरी का निधन।
Sher shah suri प्रतिभाशाली प्रशासक थे।
शेरशाह एक शानदार रणनीति कार, शेर शाह ने खुद को सक्षम सेनापति के साथ ही एक प्रतिभाशाली प्रशासक भी साबित किया। 1540-1545 के अपने पांच साल के शासन के दौरान उन्होंने नयी नगरीय और सैन्य प्रशासन की स्थापना की, पहला रुपया जारी किया था।
भारत की डाक व्यवस्था को पुनः संगठित किया और शेरशाह को पूरे हिंदुस्तान में सड़के और साराई बनवाने के लिए जाना जाता है। उन्होंने सड़कों के दोनों तरफ पेड़ लगवाए ताकि सड़क पर चलने वालों को पेड़ की छाया मिल सके उन्होंने चार बड़ी सड़के बनवाई जिसमें सबसे बड़ी थी।
ढाका के पास सोनार गांव से सिंधु नदी तक की 1500 किलोमीटर लंबी सड़क जिसे आज जीटी रोड कहा जाता है इसके अलावा उन्होंने आगरा से बुरहानपुर आगरा से जोधपुर और लाहौर से मुल्तान तक की सड़के भी बनवाई।
Sher shah suri के प्रशासन की सफलता में इन सड़कों और साराई ने अहम भूमिका निभाई उनके राज में अधिकारियों का अक्सर तबादला कर दिया जाता था और उनके सैनिक भी अक्सर गतिशील रहते थे। हर साराई में बादशाह के लिए एक अलग कमरा आरक्षित रखा जाता था।
Sher shah suri दिल्ली में पुराना किला बनवाया।
Sher shah suri का शासन काल बहुत कम होने के बावजूद स्थापत्य कला में उनके योगदान को कम करके नहीं हांका जा सकता है, उन्होंने दिल्ली में पुराना किला बनवाया उनकी मंशा इसे दिल्ली का क्षठा शहर बनाने की थी वर्ष 1542 में उन्होंने पुराने किले के अंदर ही खिलाए कुल्हा मस्जिद बनाईं लेकिन सासाराम में बने उनके मकबरे को स्थापत्य कला का बेहतरीन नमूना माना जाता है।
Sher shah suri अपने लोगों के लिए पिता के समान थे। आथिर्क रूप से अक्षम लोगों के प्रति उनके मन में बहुत दया और प्यार था। उन्होंने हर दिन भूखे लोगों के खाने के लिए 500 तोले सोने को बेचने से मिलने वाली रकम तय कर ढी थी।
उन्होंने यह नियम बना दिया था कि वह जहां कहीं भी रुक हो वहां के हर व्यक्ति को खाना उपलब्ध कराया जाए सभी को आदेश थे की शाही बावर्ची खाने में आने वाले हर शख्स को खाना खिलाकर भेजा जाए वहां हजारों लोगों को रोजाना खाना खिलाया जाता था।
Sher shah suri ने कभी भी अत्याचार करने वाले का साथ नहीं दिया चाहे वह उनके नजदीकी रिश्तेदार ही क्यों ना शेरशाह को तिहाई रात गुजर जाने के बाद उनके नौकर उन्हें जगा देते थे। उसके बाद वह चार घंटे तक यानी फर्ज की नमाज तक देश की हालत के बारे में रिपोर्ट सुना करते थे।
Sher shah suri निजी जीवन में काफी दयालु थे।
वह कुर्ता और अत्याचार के सख्त खिलाफ थे Sher shah suri का प्रशासन चुस्त और दुरुस्त था जिस किसी भी इलाके में अपराध होते थे अधिकारियों को प्रभावित लोगों को हर्जाना देने के लिए कहा जाता था ग्राम प्रमुख यानी मुकदम का काम गांव के हिसाब किताब को संभालने से कहीं अधिक था। कोई अपराध होता था तो इसके लिए उसकी जिम्मेदार ठहराया जाता था।
डकैती यात्रियों की हत्या होने पर उसकी जिम्मेदारी होती थी कि वह दोषियों को पकड़े और लूट गया सामान बरामद करें Sher shah suri की दयाल पन के और भी कई किस्से मशहूर है शेरशाह की गिनती हमेशा सबसे दयालु विजेताओं में की जाएगी इस बात के विवरण मिलते हैं कि जब वह हुमायूं की हार के बाद आगरा पहुंचे तो कई मुगल रानियां और महिलाएं बाहर जाकर उनके सामने सर झुकने लगी तो उनकी आंखों में आंसू आ गए।
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उन्होंने हमेशा इस बात का भी ख्याल रखा कि उनकी सेना के पैरों तले लोगों के खेत रौंदा जाता अगर उनकी सेना की वजह से खेतों को नुकसान पहुंचता था तो वह अपने अमीर भेज कर तुरंत नुकसान का मुआवजा दिलवाते थे। अपने सैनिकों के साथ भी उनका व्यवहार बहुत अच्छा रहता था और उनके सैनिक उनके लिए कुछ भी करने के लिए तैयार रहते थे।
वह ऐसे राजा थे जिन्होंने हमेशा अपनी प्रजा का भला चाह अपने छोटे से कैरियर में उन्होंने लोगों के बीच धार्मिक सौहार्द स्थापित करने पर बहुत जोर लगाया शेरशाह के शासन में हिंदुओं को महत्वपूर्ण पदों पर रखा जाता था। उनके सबसे प्रिय जनरल भ्रामा द्वितीय गौर थे जिन्हें उन्होंने चौथ और बिलग्राम की लड़ाई के बाद हुमायूं का पीछा करने भेजा था।
हालांकि निजी जीवन में वह पक्के मुसलमान थे लेकिन उन्होंने अपनी अधिकांश से हिंदू प्रजापत पर कोई अत्याचार नहीं किया उनकी यह सोच थी कि सरकार को हमेशा अपनी प्रजा के बीच लोकप्रिय होना चाहिए।
Sher shah suri क्यों कालिंजर के किला को जीतने का हुक्म दिया।
शेरशाह के कालिंजर जाने का कारण वीर सिंह बुंदेला था। जिसे शेरशाह ने अपने दरबार में तलब किया था। लेकिन उसने भाग कर कालिंजर के राजा के यहां शरण ली थी और उसे उसने शेरशाह को सौंपने से इनकार कर दिया था।
कलिंजर का किला समुद्र की सतह से 1230 फीट की ऊंचाई पर बना हुआ था शेरशाह ने किले को घेर कर सुरंगे और ऊंची दीवारें बनवाना शुरू करदी जब सारी तैयारी पूरी हो गई तो तय हुआ की 22 मई 1545 को किले पर हमला बोला जाएगा।
शेरशाह ऊंचे जगह से नीचे उतर आए जहां से वह तीर चला रहे थे और उस स्थान पर खड़े हो गए जहां बम रखे हुए थे। उन्होंने बम के पलाइट में आग लगाकर उन्हें किले के अंदर फेंकने का आदेश दिया जब सैनिक किले के अंदर बम फेंक रहे थे एक बम किले की दीवार से टकराकर वापस लौटा और उस स्थान पर फटा जहां बाकी बम और पटाखे रखे हुए थे।
वहां जबरदस्त धमाका हुआ और चारों तरफ आग लग गई वहां मौजूद शेख खलील शेख निजाम और दूसरे सैनिक तो आंशिक रूप से जले लेकिन शेरशाह करीब करीब आधे जल गए। इस हालत में उन्हें शिवर के बीचों-बीच ले जाया गया वहां उनके दरबार के सभी विशिष्ट लोग मौजूद थे।
शेरशाह ने इस जली हुई हालत में अपने जनरल ईशा को तलब किया और आदेश दिया कि उनके जिंदा रहते किले पर कब्जा कर लिया जाए ईशा यह सुनते ही किले पर चारों ओर से हमला बोल दिया।
शेरशाह के सैनिक चीटियां और ठिट्ठियों की तरह किले पर टूट पड़े जब भी शेरशाह को थोड़ा बहुत होश आता वह चिल्ला कर अपने सैनिकों को किले पर कब्जा करने के लिए प्रोत्साहित करते अगर कोई उन्हें देखने आता तो वह कहते यहां अपना वक्त बर्बाद करने के बजाय लरने जाओ और वहां बहुत गर्म हवा चल रही थी।
सैनिकों ने उनके शरीर पर चंदन का लेप और गुलाब जल का छिड़काव किया लेकिन हर घंटे गर्मी बढ़ती ही गई और शेरशाह को कोई आराम नहीं मिला।
दोपहर की नमाज के समय शेरशाह की सेना किले में घुसने में कामयाब हो गई जैसे ही शेरशाह को जीत की खबर सुनाई गई उसे तकलीफ में भी उनके चेहरे पर खुशी और संतोष के भाव उभर आए लेकिन कुछ ही क्षणों में उन्होंने अपनी आखिरी शब्द कहे या खुदा मैं तेरा शुक्र गुजार हूं कि तुमने मेरी इच्छा को पूरा किया यह कहते ही उनकी आंखें हमेशा के लिए बन्द हो गया।
शेरशाह की मौत के पांचवें दिन उनके दूसरे नंबर के बेटे जलाल खान कालिंजर पहुंचे जहां उन्हें हिंदुस्तान के बादशाह की गदी पर बैठाया गया। शेरशाह को कालिंजर के पास एक जगह लालगढ़ में दफना दिया गया बाद में उनके पार्थिव शरीर को वहां से निकाल कर सासाराम में शेरशाह के मकबरे में ले जाया गया
सासाराम में Sher shah suri का मकबरा।
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